Impact of Supreme Court 100 meter order on Aravalli mountains, illegal mining vs greenery and environmental crisis in North India.
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नई दिल्ली दिसंबर 2025 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देश की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला, अरावली, के संरक्षण और परिभाषा को लेकर एक ऐतिहासिक और दूरगामी फैसला सुनाया है। यह फैसला केवल दिल्ली-एनसीआर बल्कि राजस्थान, हरियाणा और गुजरात के करोड़ों लोगों के जीवन और पर्यावरण पर गहरा असर डालने वाला है। सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की एक नई, एकसमान परिभाषा को स्वीकार किया है, जिसके तहत अब केवल उन्हीं भू-भागों को 'अरावली पहाड़ी' माना जाएगा जो अपनी स्थानीय सतह से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचे हैं। इस एक तकनीकी बदलाव ने पर्यावरणविदों, स्थानीय नागरिकों और भू-वैज्ञानिकों के बीच एक बड़ी बहस को जन्म दे दिया है। जहाँ एक तरफ सरकार इसे अवैध खनन रोकने और स्पष्टता लाने वाला कदम बता रही है, वहीं दूसरी तरफ आलोचक इसे अरावली के लिए "डेथ वारंट" करार दे रहे हैं। इस लेख में हम इस आदेश की हर बारीकी, इसके पीछे की सलाह, और इसके संभावित भयानक परिणामों का विस्तार से और निष्पक्ष विश्लेषण करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश और नई परिभाषा क्या है?

सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 को अपने एक फैसले में अरावली पहाड़ियों और पर्वतमाला की एक नई 'यूनिफॉर्म डेफिनेशन' (Uniform Definition) को मंजूरी दी। इस आदेश के अनुसार, अरावली क्षेत्र (जो दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक फैला है) में किसी भी भू-आकृति को कानूनी रूप से 'अरावली पहाड़ी' तभी माना जाएगा जब उसकी ऊंचाई आसपास की जमीन (लोकल रिलीफ) से कम से कम 100 मीटर हो। इसके अलावा, 'अरावली रेंज' या पर्वतमाला का हिस्सा तब माना जाएगा जब ऐसी दो या उससे अधिक पहाड़ियां एक-दूसरे से 500 मीटर के भीतर स्थित हों। कोर्ट ने आदेश दिया है कि भारतीय सर्वेक्षण विभाग (Survey of India) इस नई परिभाषा के आधार पर पूरे क्षेत्र का नक्शा तैयार करे। साथ ही, कोर्ट ने यह भी आदेश दिया है कि जब तक 'सतत खनन प्रबंधन योजना' (Management Plan for Sustainable Mining - MPSM) तैयार नहीं हो जाती, तब तक नए खनन पट्टों (Mining Leases) को जारी करने पर रोक रहेगी। यानी, फिलहाल के लिए नए खनन पर 'फ्रीज' लगा दिया गया है, लेकिन पहले से चल रहे वैध खनन को कड़े नियमों के साथ जारी रखने की अनुमति दी गई है।

यह आदेश किसकी सलाह पर दिया गया?

यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह तकनीकी पैमाना खुद तय नहीं किया है, बल्कि यह एक विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों पर आधारित है। यह परिभाषा केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के नेतृत्व में बनी एक उच्च-स्तरीय समिति ने सुझाई थी। इस समिति में 'फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया' (FSI), 'जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया' (GSI), और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त 'सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी' (CEC) के सदस्य शामिल थे। इस समिति का तर्क था कि अब तक अरावली की कोई स्पष्ट और एकसमान परिभाषा नहीं थी। अलग-अलग राज्यों (हरियाणा और राजस्थान) में इसे अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जाता था, जिसका फायदा उठाकर अवैध खनन माफिया कानूनी खामियों से बच निकलते थे। समिति ने कोर्ट को सलाह दी कि 100 मीटर की ऊंचाई का पैमाना एक वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ तरीका है जिससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि कौन सा इलाका संरक्षित करना है और कहाँ विकास कार्य या खनन किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर भरोसा करते हुए इस नई परिभाषा को मंजूरी दी है।

पर्यावरण और अरावली पर आसन्न संकट

इस आदेश का सबसे विवादास्पद पहलू 100 मीटर की अनिवार्यता है। पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों का कहना है कि अरावली दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है (करीब 67 करोड़ साल पुरानी) करोड़ों सालों के प्राकृतिक क्षरण (Erosion) के कारण अरावली के कई हिस्से अब घिसकर छोटे हो गए हैं और उनकी ऊंचाई 100 मीटर से कम रह गई है। आलोचकों का दावा है कि इस नई परिभाषा के लागू होने से अरावली का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर हो जाएगा। इसका सीधा मतलब यह है कि जो छोटी पहाड़ियाँ, टीले और वन क्षेत्र 100 मीटर से कम ऊंचे हैं, उन्हें अब 'पहाड़' नहीं माना जाएगा और वहां खनन या रियल एस्टेट के निर्माण का रास्ता साफ हो सकता है।

अरावली उत्तर भारत के लिए 'फेफड़ों' और 'ढाल' का काम करती है। यह थार मरुस्थल को पूर्व की ओर (दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरफ) बढ़ने से रोकती है। यदि 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को खत्म कर दिया गया या वहां खनन की छूट मिल गई, तो थार का रेगिस्तान दिल्ली-एनसीआर की तरफ तेजी से बढ़ेगा। इससे धूल भरी आंधियां (Dust Storms) बढ़ेंगी और दिल्ली की हवा और ज्यादा जहरीली हो जाएगी। इसके अलावा, अरावली भूजल (Groundwater) रिचार्ज करने का सबसे बड़ा स्रोत है। अरावली की चट्टानों में दरारें हैं जो बारिश के पानी को जमीन के नीचे पहुंचाती हैं। अगर इन छोटी पहाड़ियों को खनन के जरिए समतल कर दिया गया, तो पानी जमीन के अंदर जाने के बजाय बह जाएगा, जिससे पूरे उत्तर भारत में जल संकट गहराने का खतरा है। वन्यजीवों के लिए भी यह एक बड़ा झटका है क्योंकि तेंदुए, लकड़बग्घे और अन्य जानवर ऊंचाई नापकर नहीं रहते; उनके लिए जंगल का फैलाव मायने रखता है, चाहे वह 100 मीटर ऊंचा हो या उससे कम।

स्थानीय लोगों और आम जनजीवन पर प्रभाव

इस आदेश का असर सिर्फ पर्यावरण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका सीधा प्रभाव अरावली के आसपास रहने वाले लाखों ग्रामीणों और आदिवासियों पर पड़ेगा। राजस्थान और हरियाणा के कई गांवों के लोग अपनी आजीविका के लिए अरावली के 'कॉमन लैंड' (शामलात भूमि) पर निर्भर हैं। वे वहां अपने पशु चराते हैं और जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करते हैं। अगर 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को संरक्षण से बाहर कर दिया गया, तो इन जमीनों पर खनन कंपनियों और रियल एस्टेट डेवलपर्स का कब्जा हो सकता है। इससे स्थानीय लोगों से उनकी जमीन छिन सकती है और उन्हें विस्थापन का सामना करना पड़ सकता है। फरीदाबाद के खोरी गांव जैसी घटनाएं, जहां हजारों लोगों के घर तोड़े गए थे, भविष्य में और बढ़ सकती हैं क्योंकि 'अवैध' और 'वैध' की परिभाषा बदल जाएगी।

खनन गतिविधियों के बढ़ने से आसपास के गांवों में प्रदूषण का स्तर खतरनाक हद तक बढ़ जाएगा। पत्थर तोड़ने वाली क्रशर मशीनों से उड़ने वाली धूल (Silicosis) जैसी जानलेवा बीमारियों का कारण बनती है, जिससे खदान मजदूरों और स्थानीय निवासियों की सेहत को गंभीर खतरा है। इसके अलावा, जब भूजल स्तर नीचे जाएगा, तो खेती और पीने के पानी के लिए हाहाकार मचेगा, जिसका सबसे बुरा असर गरीब किसानों पर पड़ेगा। हालांकि सरकार का कहना है कि उसने नए खनन पट्टों पर रोक लगा रखी है और वह 'सस्टेनेबल माइनिंग' (सतत खनन) की योजना बना रही है, लेकिन स्थानीय लोगों को डर है कि "सतत खनन" के नाम पर पहाड़ों का दोहन जारी रहेगा।

सरकार और कोर्ट का पक्ष

निष्पक्षता से देखें तो सरकार और सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य अनियंत्रित खनन को रोकना और एक स्पष्ट लकीर खींचना है। केंद्र सरकार ने स्पष्टीकरण दिया है कि 100 मीटर से कम ऊंचे क्षेत्रों को पूरी तरह खुला नहीं छोड़ा गया है, बल्कि वन कानूनों और अन्य नियमों के तहत वहां भी सुरक्षा लागू रहेगी। सरकार का तर्क है कि पूरी तरह से खनन पर प्रतिबंध लगाने से अवैध खनन को बढ़ावा मिलता है, जिसे रोकना मुश्किल होता है। इसलिए, एक वैज्ञानिक योजना (MPSM) के तहत नियंत्रित और वैध खनन की अनुमति देना बेहतर है, जिससे राज्य को राजस्व भी मिले और पर्यावरण का नुकसान भी कम हो। कोर्ट ने यह भी सुनिश्चित किया है कि टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क और वाइल्डलाइफ कॉरिडोर जैसे अति-संवेदनशील इलाकों में किसी भी तरह का खनन नहीं होगा, चाहे उनकी ऊंचाई कुछ भी हो।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः, सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश प्रशासनिक स्पष्टता लाने की एक कोशिश है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम चिंताजनक हो सकते हैं। 100 मीटर का पैमाना एक भौगोलिक और प्रशासनिक सुविधा तो हो सकता है, लेकिन पारिस्थितिकी (Ecology) सीमाओं में नहीं बंधती। अरावली केवल ऊंचे पहाड़ों का समूह नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण इकोसिस्टम है जिसमें घाटियाँ, ढलान, छोटे टीले और जंगल सभी शामिल हैं। यदि नई परिभाषा के कारण अरावली का एक बड़ा हिस्सा अपनी कानूनी सुरक्षा खो देता है, तो इसका खामियाजा केवल वर्तमान पीढ़ी को धूल, प्रदूषण और पानी की कमी के रूप में भुगतना पड़ेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए उत्तर भारत का एक बड़ा हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो सकता है। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना जरूरी है, लेकिन वह संतुलन प्रकृति की कीमत पर नहीं होना चाहिए। अब यह देखना होगा कि सरकार द्वारा बनाई जाने वाली 'सतत खनन योजना' में इन 100 मीटर से कम ऊंचे क्षेत्रों को बचाने के लिए क्या प्रावधान किए जाते हैं, क्योंकि अरावली का अस्तित्व ही उत्तर भारत के अस्तित्व से जुड़ा है।

 

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डिस्क्लेमर: इस पोस्ट में इस्तेमाल की गई सभी तस्वीरें AI (Artificial Intelligence) द्वारा बनाई गई हैं और केवल प्रतीकात्मक (Representational) उद्देश्य के लिए हैं।